हिंदी रंगमंच और उसका विकास

 

हिंदी रंगमंच और उसका विकास | भारतेंदु युग | पारसी थियेटर | इप्टा |पृथ्वी थिएटर |

हिंदी रंगमंच और उसका विकास

 

हिंदी रंगमंच और उसका विकास – Full hindi notes for students

 

हिंदी रंगमंच पृष्ठभूमि

हिंदी रंगमंच संस्कृत , लोक एवं पारसी रंगमंच की पृष्ठभूमि का आधार लेकर विकसित हुआ है। ध्यातव्य है कि भरतमुनि ने नाट्यशास्त्र में ‘ नाट्य ‘ शब्द का प्रयोग केवल नाटक के रूप में न  करके व्यापक अर्थ में किया है जिसके अंतर्गत रंगमंच , अभिनय , नृत्य , संगीत , रस , वेशभूषा , रंगशिल्प , दर्शक आदि सभी पक्ष आ जाते हैं।

भारत में संस्कृत रंगमंच के पृष्ठभूमि में चले जाने के बाद भी लोक रंगमंचों  की परंपरा अत्यंत सुदृढ़ रही। नौटंकी , रासलीला ,रामलीला , स्वांग , नकल , खयाल , यात्रा , यक्षगान , नाचा , तमाशा आदि लोकप्रिय लोक – नाट्य रूप रहे हैं। इसी प्रकार पारसी रंगमंच की भी हिंदी रंगमंच के विकास में ऐतिहासिक भूमिका है। बलवंत गार्गी हिंदी रंगमंच का सूत्रपात पारसी रंगमंच से ही मानते हुए कहते हैं कि ” जिस समय बंगाल में 1870 में व्यवसायिक थिएटर की नींव रखी जा रही थी , तब कुछ पारसी मुंबई में नाटक और ललित कलाओं में रुचि लेने लगे।

परिणाम यह हुआ कि पारसियों  ने व्यवसायिक हिंदी नाटक की स्थापना करने में पहल की ” इस बात का समर्थन प्रसिद्ध नाट्य समीक्षक नेमिचंद्र जैन तथा अन्य विद्वान भी करते हैं।

हिंदी रंगमंच का प्रारंभ 1853 ईसवी में नेपाल के माटगांव में अभिनीत ‘ विद्याविलाप ‘ नाटक से माना जाता है। किंतु यह नेपाल तक ही सीमित रह गया। वस्तुतः हिंदी रंगमंच का नवोत्थान 1871 ईसवी में स्थापित ‘ अल्फ्रेड नामक मंडली ‘ से हुआ। जिसने भारतेंदु , राधाकृष्ण दास के नाटकों का मंचन प्रस्तुत किया।

राधेश्याम कथावाचक इस मंडली के प्रमुख नाटककार थे। इस मंडली के मंच पर स्त्री चरित्रों की भूमिका पुरुष पात्र ही किया करते थे , इसी बीच कोलकाता के ‘ मॉर्डन थिएटर ‘ ने मुंबई की ‘ पारसी रंगमंच ‘ की ‘ इम्पीरियर ‘ आदि अनेक नाटक कंपनियों को खरीदकर कोलकाता को रंगमंच का केंद्र बना दिया।

इन संस्थाओं के एकीकरण के कारण नारायण बेताब , आगा हश्र , तुलसीदत्त शैदा , हरिकृष्ण जौहर आदि अनेक नाटककारों का संगम स्थल कोलकाता का ‘ मॉडर्न थिएटर ‘ हो गया। मुंबई और कोलकाता के इन रंगमंच के एकीकरण मे हिंदी रंगमंच के विकास में अभूतपूर्व योगदान दिया।

हिंदी में अव्यवसायिक रंगमंच का सूत्रपात 1868 ईस्वी में बनारस थिएटर के साथ हुआ। 1884 में बनारस में ‘ नेशनल थियेटर ‘ की स्थापना हुई। भारतेंदु के अंधेर नगरी का प्रथम मंचन नेशनल थियेटर में ही किया था।

हिंदी रंगमंच के विकास में ‘ भारतेंदु नाटक मंडली ‘ (1906) की भूमिका महत्वपूर्ण मानी जाती है।इस मंडली ने लगभग डेढ़ दर्जन नाटकों का मंचन किया जिसमें ‘ सत्य हरिश्चंद्र ‘ , ‘ सुभद्रा हरण ‘ , ‘ चंद्रगुप्त ‘ , ‘ स्कंदगुप्त ‘ , ‘ ध्रुवस्वामिनी ‘ प्रमुख है।  इस नाटक मंडली ने भारतेंदु युगीन नाटकों के साथ – साथ प्रसाद के नाटकों को भी सफलतापूर्वक मंचित कर हिंदी के अपने स्वतंत्र रंगमंच के विकास का मार्ग प्रशस्त किया।

जयशंकर प्रसाद के नाटकों को मंचित कर इस संस्था ने सिद्ध किया कि प्रसाद के नाटक पूर्णतः  अभिनेय  है। आगे चलकर काशी हिंदू विश्वविद्यालय की ‘ विक्रम परिषद ‘ की स्थापना 1939 ईस्वी में हुई थी। इसने नाटकों में स्त्री पात्र के लिए स्त्रियों द्वारा ही अभिनय की परंपरा डाली।

हिंदी रंगमंच के विकास में ‘ बलिया नाट्य  समाज ‘ (1884) की भूमिका दी ऐतिहासिक मानी जाती है। 1884 ईसवी में यही पर भारतेंदु ने नाटक पर एक लंबा व्याख्यान दिया था। उसी समय ‘ सत्य हरिश्चंद्र ‘ तथा ‘ नीलदेवी ‘ नाटकों का मंचन किया गया था। उसी समय भारतेंदु ने हरिश्चंद्र की भूमिका निभाई थी। इस नाटक के मंचन को उस क्षेत्र में अपार लोकप्रियता प्राप्त हुई थी। इस संदर्भ में गोपालराम गहमरी ने लिखा है कि ” पात्रों  का शुद्ध उच्चारण हमने उसी समय हिंदी में नाटक स्टेज पर सुना था। ”

हिंदी रंगमंच के विकास में काशी के पश्चात इलाहाबाद के रंगमंच यो का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। यहां के महत्वपूर्ण नाट्य मंच ‘ आर्य नाट्य सभा ‘ , ‘ श्री राम लीला नाटक मंडली ‘ तथा ‘ हिंदी नाट्य समिति ‘ थे। कानपुर की संस्थाओं ने भी हिंदी रंगमंच को आगे बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।

यहां के प्रमुख नाट्य मंच है -‘ भारत नाट्य समिति ‘ और ‘ भारतीय कला मंदिर ‘|  वर्तमान समय में कानपुर की ‘ कानपुर अकादमी ऑफ ड्रामेटिक आर्ट्स ‘ तथा ‘ एंबेसडर ‘ संस्थाएं समकालीन नाटकों के मंचन  में महत्वपूर्ण’ भूमिका निभा रही है। बिहार में ‘ पटना नाटक मंडली ‘ (1876) तथा ‘ अमेच्योर ड्रामेटिक एसोसिएशन ‘ उल्लेखनीय नाट्य मंच रहे है।

 

हिंदी रंगमंच का विकास महत्वपूर्ण प्रवृतियां

भारतेंदु युग

भारतेंदु युग में व्यापक पैमाने पर न सिर्फ नाट्य – लेखन हुआ बल्कि उनके  मंचन के लिए भी प्रेरणा मिली। स्वयं भारतेंदु नाट्य लेखन एवं अभिनय के केंद्र में एक संस्था की तरह कार्यशील थे। भारतेंदु से पूर्व भी पारसी रंगमंच व्यवसायिक स्तर पर सक्रिय था। भारतेंदु ने सक्रिय होकर पारसी रंगमंच के समानांतर एक अव्यवसायिक  रंगमंच का आरंभ किया।

भारतेंदु ने हिंदी रंगमंच के विकास में परंपरा और आधुनिकता का समन्वय करते हुए संस्कृत नाट्य परंपरा के महत्वपूर्ण तत्वों को लोक नाट्य परंपरा के साथ समन्वित  करते हुए अपनी विशिष्ट प्रतिभा से हिंदी के अपने रंगमंच के विकास को तीव्र गति प्रदान की। उन्होंने पश्चिम की ग्रीक परंपरा को भी सीमित मात्रा में समाविष्ट किया। भारतेंदु ने अपने नाटकों को अधिकाधिक अभिनेय  बनाए जाने पर बल दिया। उन्होंने अपने नाटकों में पात्र योजना , भाषा , संवाद योजना ,में रंग संकेतों के माध्यम से अभिनेता का भी ध्यान रखा।

 

पारसी थियेटर

आज क्या बात अधिक उदारता से स्वीकार की जाने लगी है कि हिंदी रंगमंच के विकास में पारसी रंगमंच की भूमिका को कम करके नहीं आंका जा सकता। पारसी थियेटर शुद्ध व्यवसायिक थियेटर था , इसलिए उसने अपनी मौलिक रंग पद्धतियों का विकास किया।  इसमें अंग्रेजी की तुलना में भारतीय लोक रंग , शेरो – शायरी , उर्दू मिश्रित संवाद , भावुकता का आवेग , अतिनाटकीयता , गीत – संगीत की बहुलता , नृत्य , चमत्कारिक , ध्वनि – प्रभाव आदि पर अत्यधिक बल दिया गया। लक्ष्मीनारायण लाल लिखते हैं ” आगा हश्र , राधेश्याम कथावाचक नारायण बेताब के नाटक पूरे हिंदी भाषी क्षेत्र के दशक के लिए आकर्षण केंद्र थे। ”

पारसी रंगमंच की मूल विशेषताएं निम्नलिखित थी –

१ रंगमंच को व्यवसायिक  रूप देकर प्रतिष्ठित करना और वेतन आधारित अभिनेताओं से कार्य कराना अर्थात रंगकर्म की स्वतंत्र सत्ता  स्थापित करना।

२ पूरी हिंदीभाषी जनता से संरक्षण प्राप्त करना और साहित्य व रंगमंच की दूरी को समाप्त करना।

३ रंगमंच की प्रवृत्ति के अनुकूल भाषा एवं अभिनय शैली पर बल देना।

द्विवेदी युग एवं छायावाद युग राष्ट्रीय आंदोलन के विकास के चरण थे जिसमें राष्ट्रीय संस्कृति एवं मर्यादा पर अधिक बल होने के कारण पारसी रंगमंच की व्यवसायिक पद्धतियों की तीव्र भर्त्सना की गई। लक्ष्मीनारायण लाल के शब्दों में ” हिंदी ने अतिशुद्धि  एवं अर्थ – भावना के कारण पारसी रंगमंच को हिंदी का अपना नहीं माना और रंगमंच दर्शक , रंगमंच – नाटक , विषयवस्तु – नाटक, पाठक – दर्शक , व्यवसाय – साहित्य के बीच करीब पचास वर्षों का भयानक अंतराल पैदा कर दिया। ”

किंतु पारसी रंग शैली को जनमानस में इतनी लोकप्रियता प्राप्त थी कि उससे भारतेंदु एवं प्रसाद अप्रभावित नहीं रह सके। दोनों ने पारसी रंगमंच की प्रतिक्रिया में लिखा लेकिन दोनों ने उसकी रंग – शैली , अभिनय – शैली और गीत संगीत के प्रभावों  को जाने अनजाने ग्रहण किया है।

प्रसाद की नाट्य दृष्टि और हिंदी रंगमंच का विकास-

प्रसाद के समक्ष मूल चुनौती हिंदी में गंभीर ऐतिहासिक सांस्कृतिक नाटकों की अनुपस्थिति की थी। उन्होंने गंभीर साहित्य नाट्य लेखन पर बल दिया एवं रंगमंच को निर्देशक एवं अभिनेता की प्रतिभा पर छोड़ दिया। उन्होंने साफ तौर पर कहा कि ” नाटक के लिए रंगमंच होना चाहिए न कि रंगमंच के लिए नाटक ” तब भी , उनके नाटकों में पर्याप्त रंग संकेत उपलब्ध हैं। पारसी रंगमंच की रंग पद्धतियों को अस्वीकार करते हुए भी प्रसाद ने उनसे पर्याप्त प्रभाव ग्रहण किया है। प्रसाद के नाटकों में कई जगह अतिनाटकीयता एवं गीतों की बहुलता पूर्णतः  पारसी रंगमंच के प्रभाव से है। प्रसाद ने पाश्चात्य रंग परिकल्पना से भी प्राप्त प्रभाव ग्रहण किया है , वस्तुतः नाटकों का वृहदाकार पात्रों की बहुलता , देशकाल का विस्तार , युद्ध , मृत्यु जैसे दृश्यों का समावेश पाश्चात्य नाट्य परंपरा से ही प्रेरित है।

प्रसाद शेक्सपियर एवं बर्नार्ड शॉ के नाटकों से प्रभावित थे। दर्शकों की सांस्कृतिक अभिरुचियों के परिष्कार पर बल  रखने के कारण प्रसाद जी ने भारतीय नाट्यशास्त्र से भी अनेक तत्वों को ग्रहण किया है। निसंदेह हिंदी रंगमंच के विकास में प्रसाद की नाट्य दृष्टि की भूमिका को कम नहीं किया जा सकता।

यह सही है कि अपनी कई संरचनात्मक विशेषताओं जैसे पात्र – बाहुलता , कठिन दृश्य योजना , अवांतर कथाओं की उपस्थिति , दर्शन के प्रक्षेपण आदि की वजह से प्रसाद के नाटक प्रायः  अभिनेयता के गुण से वंचित माने जाते हैं , किंतु कई रंग निर्देशकों जैसे इब्राहिम अल्काजी ने कहा है कि यह प्रसाद कि नहीं , हिंदी रंगमंच की कमी है कि वह प्रसाद के नाटकों के लिए अपेक्षित प्रयोगशीलता का प्रदर्शन नहीं कर सका। आगे चलकर मोहन राकेश ने भारतेंदु एवं प्रसाद की नाट्य दृष्टियों के समन्वय के आधार पर ही हिंदी के अपने स्वभाविक सांस्कृतिक रंगमंच के विकास पर बल दिया।

 

इप्टा

इप्टा अर्थात ‘ इंडियन पीपल थिएटर एसोसिएशन ‘ का जन्म देश की आजादी की लड़ाई और विश्वव्यापी फासीवाद विरोधी आंदोलन के गर्भ से हुआ था।  इसकी  स्थापना 25 मई 1943  को मुंबई में हुई थी। इसका नामकरण रोमा रौंला की पुस्तक ‘ पीपल थिएटर ‘ के आधार पर किया गया था। सन 1943 – 47 के दौरान इप्टा  की गतिविधियां अत्यधिक लोकप्रिय एवं देशव्यापी होने लगी थी।

इन समूह ने प्रगतिशील नाटकों के मंचन पर बल दिया इसने लोक मंच के तत्वों को आत्मसात करते हुए नुक्कड़ नाटकों के मंचन को भी लोकप्रिय बनाया। हिंदी , उर्दू एवं अन्य भारतीय भाषाओं के भी सभी प्रगतिशील एवं वामपंथी लेखक , साहित्यकार , बुद्धिजीवी या तो प्रत्यक्षता इससे जुड़े थे या अप्रत्यक्ष रुप से इसके प्रशंसक थे।

आजादी के बाद भी 1960 तक सैकड़ों प्रगतिशील नाटकों का मंचन इप्टा द्वारा किया गया। अली सरदार जाफरी , कैफ़ी आज़मी , राजेंद्र रघुवंशी , रामविलास शर्मा , रांगेय राघव , ख्वाजा अहमद अब्बास , उपेंद्रनाथ अश्क जैसी महान हस्तियां इप्टा  से जुडी थी। बलराज साहनी इप्टा  के एक महत्वपूर्ण अभिनेता थे। हिंदी रंगमंच को आम जनता के साथ जोड़े रखने में इप्टा की भूमिका ऐतिहासिक मानी जाती है एक ठहराव के बाद आज भी इप्टा समकालीन रंगमंच पर अपनी सक्रियता बनाए हुए हैं।

 

पृथ्वी थिएटर ( Prithvi Theater )

1944 में पृथ्वीराज कपूर ने ‘ पृथ्वी थिएटर ‘ की नींव  रखी।  फिल्म से कमाई अपनी सारी आमदनी उन्होंने इस थिएटर में लगा दी।  इसकी स्थापना कर उन्होंने हिंदी रंगमंच को एक राष्ट्रीय स्वरुप प्रदान किया , साथ ही इप्टा  के साथ सहयोग करते हुए हिंदी रंगमंच की सामाजिक भूमिका को भी पहचाना और स्पष्ट किया। प्रख्यात जन कवि और नाटककार शील  पृथ्वी थिएटर को देश का राष्ट्रीय हिंदी रंगमंच मानते हुए पृथ्वीराज कपूर को सांस्कृतिक योद्धा बताया। 16 वर्ष तक पृथ्वी थिएटर ने पूरे भारत में नाटक मंचित किए इसमें कुल 8 नाटक थे – ‘ शकुंतला ‘ , ‘ दीवार ‘ , ‘ पठान ‘ , ‘ आहुति ‘ , ‘ कलाकार ‘ , ‘ पैसा ‘ , ‘ किसान ‘, ‘ दत्ता ‘ इनमें कुल  रंग सदस्यों की संख्या 80 से 90 थी।

इसका वार्षिक बजट तीन से चार लाख रुपए का था और एक लाख रुपये की सहायता सरकार से मिलती थी। इस थियेटर  ने देशभर में अपनी प्रस्तुतियां दी। पृथ्वी थिएटर पारसी थियेटर के बाद ऐसा नाटक समूह था जो अपने नाट्य दल , रंग – सज्जा तथा रंग उपकरण के साथ उत्तर एवं दक्षिण भारत के सभी क्षेत्रों में यात्रा करता एवं प्रस्तुतियां देता था। इसमें पृथ्वीराज के अतिरिक्त जोहरा सहगल , राज कपूर , शम्मी कपूर , प्रेमनाथ , सुदर्शन सेठी और श्रीराम महत्वपूर्ण कलाकार थे। इनके नाटकों में साम्राज्यवाद विरोध , सामंतवाद विरोध , पूंजीवाद के विकृत रूपों का विरोध , हिंदू – मुस्लिम एकता आदि महत्वपूर्ण विषय होते थे।

पृथ्वी थिएटर आज भी सक्रिय है कपूर परिवार की संजना कपूर पृथ्वी थिएटर का संचालन आज भी पूरी प्रतिबद्धता एवं व्यवसायिकता  के साथ कर रही है। हाल ही में इस समूह में अखिल भारतीय नाट्य उत्सव का आयोजन किया था मुंबई और दिल्ली में आज भी यह समूह प्रतिवर्ष नाटकों का आयोजन करता है।

 

मोहन राकेश और हिंदी रंगमंच का विकास

मोहन राकेश की रंग – दृष्टि हिंदी रंगमंच के विकास में मील का पत्थर साबित करती है , उन्होंने पश्चिमी रंगमंच से पृथक हिंदी के नए एवं मौलिक रंगमंच की खोज करने का प्रयास किया। जहां पश्चिम का रंगमंच दृश्य – योजना और तकनीकी पर आधारित है उन्होंने हिंदी के लिए ऐसा रंगमंच बनाने की कोशिश की जो मानव तत्व और शब्द तत्व पर आधारित हो , ताकि कम से कम संसाधनों के साथ संश्लिष्ट से संश्लिष्ट  प्रयोग किए जा सके।

अपने पहले नाटक ‘ आषाढ़ का एक दिन ‘ की भूमिका में उन्होंने हिंदी के मौलिक रंगमंच के उद्देश्य की चर्चा की है वह लिखते हैं ” हिंदी रंगमंच को हिंदी भाषी प्रदेश की सांस्कृतिक मूर्तियों और आकांक्षाओं का प्रतिनिधित्व करना होगा रंगों और राशियों के हमारे विवेक को व्यक्त करना होगा हमारे दैनंदिन जीवन के राग रंग को प्रस्तुत करने के लिए हमारे संदेशों और स्तंभों को अभिव्यक्त करने के लिए जिस रंगमंच की आवश्यकता है वह पाश्चात्य रंगमंच से कहीं दिन होगा। ”

अपनी इसी रंग – दृष्टि को मोहन राकेश ने अपने सभी नाटकों ‘ आषाढ़ का एक दिन ‘ , ‘ लहरों के राजहंस ‘ तथा ‘ आधे अधूरे ‘ में प्रयुक्त किया।  यह रंग – दृष्टि मंच पर इतनी अधिक सफल रही कि इसमें हिंदी नाटक रंगमंच के नए मुहावरे गढ़ दिए। सिर्फ एक दृश्य के माध्यम से नाटक के सभी अंगो की प्रस्तुति , मंचीय संवादों के अतिरिक्त नेपथ्य से बहुत सी ध्वनियों का सार्थक प्रयोग , अभिनेताओं की आंगिक चेष्टाओं  के माध्यम से अकथनीय को भी कह देने की ताकत जैसी विशेषताओं ने मोहन राकेश की रंगमंचीय प्रयासों को यह अभूतपूर्व सफलता दिलाई।

 

राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय ( Rashstriya naatya vidyaalay )

भारत में रंगमंच के विकास को देखते हुए संगीत नाटक अकादमी द्वारा अप्रैल 1959 में ‘ राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय ‘ की स्थापना की गई। इस विद्यालय ने न सिर्फ देश की महत्वपूर्ण रंग प्रतिभाओं , निर्देशकों , अभिनेताओं को जन्म दिया है , बल्कि हिंदी के नाटकों के मंचन एवं रंगमंच के विकास में 1960  के बाद ऐतिहासिक दायित्व निभाया है।

इस विश्वविद्यालय में रंग-मंडल की स्थापना 1964 ईस्वी में की गई जो उसका प्रदर्शन विभाग है। रंग-मंडल ने शैलीगत संगीत से लेकर भारतीय नाट्य की समकालीन कृतियों , अनुवादों और विदेशी भाषाओं के नाटकों के नाट्य रूपांतरण की 200 से अधिक प्रस्तुतियां की है। रंग- मंडल के साथ राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय ख्याति के प्रमुख रंग निर्देशकों ने काम किया है। रंग-मंडल भारत के मुख्य शहरों में प्रस्तुतियां तो करता ही है इसने विदेशों में भी कई प्रदर्शन किए हैं।

इसके प्रथम निर्देशक ‘ इब्राहिम अल्काजी ‘ ने हिंदी नाटक और रंगमंच को नगण्य और उपेक्षित स्थिति से ऊपर उठाकर बड़े फलक पर प्रतिष्ठित करने का उल्लेखनीय कार्य किया , लेकिन कुछ नाट्य आलोचकों का मानना है कि राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय पर पाश्चात्य रंग शैलियों का प्रभाव कुछ ज्यादा ही है। भारतीय नाटक की शास्त्रीय परंपरा और हिंदी प्रवेश की लोक परंपराओं की इसके द्वारा कई बार उपेक्षा हुई है। किंतु आधुनिक तकनीकों , प्रकाश एवं ध्वनि के इस्तेमाल में हिंदी रंगमंच के विकास को अंतरराष्ट्रीय स्तर प्रदान किया है। प्रसाद के जिन नाटकों को अनभिनेय  माना जाता था उनका सफल प्रदर्शन तकनीकी सामग्रियों के कारण संभव हो सका।

1999 इसवी मैं स्वर्ण जयंती के अवसर पर ‘ राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय ‘ ने भारत रंग – महोत्सव का आयोजन प्रारंभ किया। इस महोत्सव में विभिन्न राज्यों की राष्ट्रीय स्तर की प्रस्तुतियों को ‘ राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय ‘ के सभी मंच पर प्रस्तुत किया जाता है। इन परिस्थितियों के कारण हिंदी रंगमंच पर अखिल भारतीय स्वरूप के विकास एवं संगठन में मदद मिली है।

कहना ना होगा की सांस्कृतिक औद्योगीकरण एवं कलाओं के तीव्र व्यवसायीकरण के दौर में हिंदी रंगमंच को संभाले एवं संगठित रखने में राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय की भूमिका ऐतिहासिक है।

 

अन्य संस्थाएं

आजादी के बाद हिंदी रंगमंच का व्यापक विस्तार हुआ प्रशिक्षित रंगकर्मियों के द्वारा प्रशिक्षण शिविरों और नाट्य प्रस्तुतियों ने अनेक नाटक संस्थाओं को जन्म दिया। दिल्ली में ‘ श्रीराम सेंटर ‘ ने हिंदी रंगमंच के विकास में ऐतिहासिक भूमिका निभाई है। हिंदी रंगमंच के केंद्र दिल्ली के साथ-साथ उत्तर भारत के अन्य शहरों में भी फैलने लगे एवम नई प्रतिबद्धता के आधार पर नई-नई रंगमंच टोलियों का संगठन होने लगा। ‘ अभियान ‘ , ‘ देशांतर ‘ , ‘ थिएटर यूनिट ‘ , ‘ नया थिएटर ‘ , ‘ अनामिका ‘  , ‘ जननाट्य मंच ‘ , ‘ प्रयोग ‘ , ‘दर्पण ‘ , ‘ रुपांतर ‘ , ‘ मेघदूत ‘ , ‘ प्रतिध्वनी ‘ आदि अनेक संस्थाओं ने हिंदी रंगमंच की नींव को मजबूत किया।

वस्तुतः 1960 – 70 का समय रंगकर्म में क्रांति लहर की तरह था। सर्वश्रेष्ठ हिंदी नाटक इसी समय में रचे गए एवं मंचित हुए। आगामी रंगकर्म की पीठिका इसी समय तैयार हुई और भारतीय भाषाओं के नाट्य अनुवाद हिंदी रंगमंच पर और हिंदी नाटक भारतीय रंगमंच पर प्रस्तुत होने लगे। ‘ अभियान ‘ और ‘ देशांतर ‘ ने एक दशक तक हिंदी रंगमंच को कई सार्थक प्रस्तुतियां प्रदान की।

इसी समय में बहुत से अभिनेता निर्देशक और विशिष्ट कलात्मक प्रतिभा के कारण प्रतिष्ठित हुए उदाहरण के लिए  ओम शिवपुरी  ,  सुधा शिवपुरी  , ब . व क्रांत , मोहन महर्षि , मनोहर सिंह , रामगोपाल बजाज , सुरेखा सीकरी , जोहरा सहगल आदि ने अभिनय निर्देशन वह नाट्य लेखन के क्षेत्र में कीर्तिमान स्थापित किए।

हिंदी रंगमंच के विकास में हबीब तनवीर एवं उनकी नाट्य संस्था ‘ नया थियेटर ‘ की ऐतिहासिक भूमिका है। उन्होंने अपने नाटकों की प्रस्तुति के माध्यम से हिंदी रंगमंच को लोक परंपराओं से संपर्क करते हुए उसे विश्व रंगमंच पर भी प्रतिष्ठा दिलाई।

1967 से 1977 तक का समय हिंदी नाटक और रंगमंच का अत्यंत सक्रियता और गतिविधियों से भरपूर रहा रंगकर्म की तीव्र गति प्रयोगशीलता और उत्साह ने नवीन कृतियों में नवीन संभावनाओं की तलाश की और विभिन्न देशी – विदेशी कृतियों के अनुवादों और उसके नाट्य रूपांतरण पर ध्यान केंद्रित हुआ।  बंगाल , मराठी , गुजराती , कन्नड़ , तेलुगू , मलयालम के साथ साथ फ्रेंच , जर्मनी , अंग्रेजी , रूसी आदि भाषाओं की श्रेष्ठतम नाट्य कृतियों के अनुवाद तीव्र गति के साथ शुरू हुए जिससे दूसरी भाषाओं की नाटक कृतियां और शैलियां हिंदी नाटक और रंगमंच पर आई।

हिंदी रंगमंच के विकास में नुक्कड़ नाटक की भूमिका

छठे दशक में ही हिंदी रंगमंच को भारतीय रंगमंच में छाए पश्चिमी थिएटर के प्रभावों के विरुद्ध अपनी परंपराओं की ओर लौटने की जरूरत महसूस हुई आम जनता तक और अधिक व्यापक पहुंच सुनिश्चित करने  हेतू और एक आम बोलचाल की भाषा में जनसमस्याओं को संबोधित करने की जरूरत ने नुक्कड़ नाटकों के प्रयोग को अपरिहार्य बना दिया। ब्रेख्त  और ग्रोटोवस्की के विचारों और पश्चिम के ‘ स्ट्रीट थिएटर ‘ में भी हिंदी में नुक्कड़ नाटकों के मंचन को प्रेरणा प्रदान की।

देशव्यापी परिस्थितियों के बदलने से आम जनता के शोषण में वृद्धि और जन संघर्ष की जो अभिव्यक्ति साहित्य और कलाओं में उभर रही थी। उसको नाटकों के माध्यम से प्रस्तुत करने में नुक्कड़ नाटकों का कोई सानी न था। परंपरागत भारतीय लोक मंचों की सादगी , उन्मुक्तता , लचीलापन , संगीतात्मकता , सामूहिकता , आर्थिक न्याय में कमी आदि ने नुक्कड़ नाटकों को और अधिक लोकप्रिय बनाया।

हिंदी के नुक्कड़ नाटक निश्चित तौर पर इप्टा की प्रगतिशील विचारधारा एवं वामपंथी राजनीतिक साहित्यिक विचारधारा से ग्रहण रूप से संबंध रहे हैं। नुक्कड़ नाटकों में समसामयिक , राजनीतिक , सामाजिक , सांस्कृतिक मुद्दों पर आधारित नाटकों का मंचन के लिए वरीयता दी जाती रही। नाटक एवं जनता के बीच की दूरी को समाप्त करने में नुक्कड़ नाटक टोलियां वर्षों से महत्वपूर्ण भूमिका निभाती रही है।

एक और प्रेमचंद एवं अन्य लेखकों की कहानियां नुक्कड़ मंच का मुख्य केंद्र बन गई , दूसरी और कोई प्रतिबध नाटककार भी नाट्य लेखन करते रहे। गुरुशरण सिंह , सफदर हाशमी , राधा कृष्ण सहाय , विभु कुमार आदि के अतिरिक्त कई नए नाटककार भी इस दिशा में सक्रिय हुए। दरअसल नुक्कड़ मंच सामाजिकता एवं राजनीतिक साझीदारी और दायित्व की बात उठाता है। उसका दर्शक समूह , सड़क चलते लोग , दफ्तरों कारखानों से निकले कर्मचारी , मजदूर , विश्वविद्यालयों के विद्यार्थी आदि होते हैं।

यह 30 से 40 मिनट में जानी-पहचानी घटनाएं एवं स्थितियों के कई तनावपूर्ण पहलुओं को उजागर करके दर्शक को उकसाना और प्रेरित  करना चाहता है। उसकी भाषा , उसके छोटे – छोटे दृश्य , तीव्रता , प्रखरता , प्रत्यक्ष साझेदारी , गीत – संगीत , एक्शन , व्यंग्य एवं वक्रोक्ति , प्रभावशाली संवाद आदि मौलिकता के आधार है। लोक नाटकों की तरह लचीलापन और परिवर्तनशीलता इसकी खासियत है। दिल्ली में नुक्कड़ नाटक को लोकप्रिय बनाने में ‘ सफदर हाशमी ‘ की भूमिका अविस्मरणीय मानी जाती है। भारत के लगभग सभी प्रमुख शहरों कि अपनी-अपनी नुक्कड़ टोलियां है , और आज भी यह जनता एवं नाटक के बीच एक महत्वपूर्ण कड़ी के रुप में सतत क्रियाशील है।

 

हिंदी रंगमंच के विकास में लोक नाट्य शैली एवं शास्त्रीय शैलियों के प्रयोग।

जब हिंदी रंगमंच पश्चिमी रंग प्रयोगों और शैलियों से उठ चुका था तो हिंदी की अपनी स्वाभाविक सांस्कृतिक प्रकृति के अनुरूप रंगमंच का अन्वेषण करने के प्रयासों में 1976 से 77 के आसपास एक अलग किस्म की सक्रियता दिखाई पड़ी। इसी समय सर्वेश्वर के ‘ बकरी ‘ और मणि मधुकर के ‘ दुलारी बाई ‘ जैसे नाटकों के देश के कोने – कोने में नौटंकी , ख्याल जैसे लोकनाट्य रूपों में और साथ ही पारसी रंगमंच एवं आधुनिक रंगमंच के प्रयोग में सैकड़ों मंचन हुए उनका उपयोग नाटक प्रशिक्षण शिविरों के लिए भी हुआ और बड़े-बड़े समारोह के लिए भी।

राष्ट्रीय फलक पर हबीब तनवीर छत्तीसगढ़ी लोकनाटय रूपों का आधुनिक संदर्भ में सृजनात्मक उपयोग अपने ‘ चरणदास चोर ‘ जैसे नाटक कर रहे थे। इसी दौरान में  ‘ ब  व क्रांत ‘ ने दक्षिण की यक्षगान शैली के बहुत ही सार्थक प्रयोग ‘ अंधेर नगरी ‘ एवं ‘ हयवदन ‘ में किए। बंसी कौर , रतन थिय्याम  ने भी  नौटंकी एवं मणिपुर , असम की लोक नाट्य शैलियों का प्रयोग किया। दूसरी तरफ संगीत नाटक अकादमी ने भी अपने उत्सवों में लोक नाट्य रूपों में के प्रयोग को प्रोत्साहित करना शुरू किया।

 

रंगमंच के नए मुहावरों एवं शैलियों की तलाश

किसी भी अच्छे रंगमंच के विकासमान रहने के लिए शिल्प उपकरणों एवं आधुनिकता आवश्यक है , किंतु यह भी सही है कि श्रेष्ठ रंगमंच की पहचान व स्थायित्व अपनी मौलिकता अपने संस्कारों विरासत एवं जीवन दर्शन से बनती है। आधुनिक रंगमंच भी चाहे वह ब्रेकअप का हो चाहे गॉष्टावस्की  का चाहे बादल सरकार का हो चाहे अन्य किसी प्रतिष्ठित निर्देशकों का। वस्तुतः वह  अभिनेता की शक्ति में ही विश्वास रखता है। बाह्य उपकरणों में नहीं भरतमुनि का नाट्यशास्त्र में भी यही दृष्टि प्रस्तावित है।

1980 के आसपास से हिंदी नाटक एवं रंगमंच सारी जटिलताओं , विसंगतियों के बावजूद अधिक सार्थक प्रासंगिक जीवंत एवम मौलिक और साथ ही भारतीय मुहावरे की तलाश करने लगे। सुरेंद्र वर्मा के प्रयोगशील नाटक भारतीय रंगमंच की अवधारणा के निकट आते प्रतीत हुए ‘ अनामिका ‘ द्वारा नाट्यशास्त्र पर संवादरतन थियम द्वारा मणिपुरी शैली में ‘ अंधा युग ‘ का प्रस्तुतीकरण सिद्ध करता है कि भारतीय रंगमंच अपने को एक और लोक शैलियों से , तो दूसरी ओर शास्त्रीय शैलियों से जोड़कर हिंदी रंगमंच को लगातार नवीनीकृत एवं प्रसांगिक बनाने हेतु संघर्षरत रहा है।

 

 

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