नौटंकी

  उत्तर भारत, उत्तर भारत से सटे नेपाल और पाकिस्तान के मूलतान क्षेत्र में प्रचलित एक लोक नृत्य और लोकनाट्य की शैली है। यह भारतीय उपमहाद्वीप में अत्यंत प्राचीन काल से प्रचलित है। 16वीं शताब्दी के प्रसिध्द इतिहासकार अबुल फज़ल की आइन-ए-अकबरी में भी नौटंकी का उल्लेख मिलता है। नौटकी स्वांग परम्परा की वंशज है और इसका नाम मुल्तान (अब पाकिस्तान) की एक ऐतिहासिक ‘नौटंकी’ नामक राजकुमारी पर आधारित एक ‘शहज़ादी नौटंकी’ नाम के प्रसिद्ध नृत्य-नाटक पर पड़ा। नौटंकी नाम के विषय में एक लोक प्रेमकथा प्रचलित है। ऐसा कहा जाता है कि पंजाब के स्यालकोट के राजा राजो सिंह के छोटे बेटे फूल सिंह ने शिकार खेलकर लौटने के बाद अपनी भाभी से पानी माँगा। भाभी ने पानी देने के स्थान पर व्यंग्य किया – ‘जाओ, मुल्तान की राजकुमारी नौटंकी से शादी कर लो।’ भाभी की बातें उसके हृदय में इस तरह चूभ गईं कि फूल सिंह राजकुमारी नौटंकी की खोज में मुल्तान पहुँच गया और शाही मालिन के द्वारा नौटंकी के पास एक हार भेजा। नौटंकी के पूछने पर मालिन ने कहा कि यह हार मेरे भाँजे की वधू ने बनाया है। राजकुमारी नौटंकी ने जब भाँजे की वधू से मिलने की इच्छा जाहिर की तो राजकुमार फूल सिंह स्त्री के वेश में नौटंकी के शयन कक्ष में पहुँच गया। रात में साथ सोने के क्रम में फूल सिंह का यह भेद खुल गया और अंततः दोनों की शादी हो गई।

नौटंकी, लोकमंच पत्रिका
नौटंकी, लोकमंच पत्रिका

विद्वानों का मानना है कि पाकिस्तान के पंजाब प्रांत से शुरू होकर नौटंकी की शैली लोकप्रिय होकर पूरे उत्तर भारत में फैल गई। समाज का अभिजात वर्ग  इसे ‘सस्ता’ और ‘अश्लील’ समझता है इसके बावजूद यह लोक-कला आम जनता के बीच लोकप्रिय होती चली गई। नौटंकी और स्वांग में एक महत्वपूर्ण अंतर यह है कि जहाँ स्वांग अधिकतर धार्मिक विषयों से संबन्धित होता है और उसमें गंभीरता होती है तो दूसरी तरफ नौटंकी के विषय प्रेम और वीर-रस पर आधारित होते हैं और उनमें व्यंग्य की पुट होती है। नौटंकी का कथानक प्रणय, वीरता, साहसपूर्ण घटनाओं से भरा रहता है। वह किसी लोकप्रसिद्ध वीर या साहसी या भागवत पुरुष की जीवन कथा पर अवलम्बित रहता है। इनकी कथाओं का सम्बन्ध पौराणिक आख्यानों से न होकर लौकिक वीर, प्रणयी, साहसिक, भक्त पुरुषों के कार्यों से होता है। उन्हीं का प्रदर्शन इनमें किया जाता है।  पंजाब में ‘गोपीचन्द’, ‘पूरन भक्त’ और ‘हकीकत राय’ का संगीत अत्यधिक लोकप्रिय है।

नौटंकी, लोकमंच पत्रिका
नौटंकी, लोकमंच पत्रिका

वैसे तो नौटंकी में कोई भी प्रसिद्ध लोककथा को विषय बनाया जा सकता है किंतु शृंगार रस प्रधान अथवा प्रेमगाथा विषयक रचनाएँ ही प्रधानता पाती रही हैं। नौटंकी में प्रेमलीला अथवा रोमांच का संस्पर्श किसी न किसी रूप में होता ही है। इसी को नौटंकी कहा भी जाता है। नौटंकी मूलत: किसी प्रेम कहानी केवल नौ टंक तौलवाली कोमलांगी नायिका होती है। शुरुआत से वही संगीत-रूपक में प्रस्तुत की गयी और वह रूप ऐसा प्रचलित हुआ कि अब प्रत्येक संगीत-रूपक या स्वाँग ही नौटंकी कहा जाने लगा है। भारत मुनि ने अपने नाट्य शास्त्र में जिस सट्टक को नाटक का एक भेद माना है, वही नौटंकी है। इसके विषय में जयशंकर प्रसाद और हजारी प्रसाद द्विवेदी का कहना है कि सट्टक नौटंकी के ढंग के ही एक तमाशे का नाम है।

जयशंकर प्रसाद ने अपने निबंध ‘रंगमंच’ में नौटंकी को नाटक का अपभ्रंश माना है। प्रसाद का कहना है कि ‘नौटंकी प्राचीन रागकाव्य या गीतिकाव्य की ही स्मृति है। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के मतानुसार, ‘नौटंकी का वर्तमान रूप चाहे जितना आधुनिक हो, उसकी जड़ें बड़ी गहरी हैं।’ रामबाबू सक्सेना ने अपनी पुस्तक ‘तारीख़-ए-अदब-ए-उर्दू’ में लिखा है कि ‘नौटंकी लोकगीतों और उर्दू कविता के मिश्रण से पनपी है।’ कालिका प्रसाद दीक्षित ‘कुसुमाकर’ का मानना है कि ‘नौटंकी का जन्म संभवतः ग्यारहवीं-बारहवीं शताब्दी में हुआ था।’ 13वीं शताब्दी में अमीर खुसरो के प्रयत्न से नौटंकी को आगे बढ़ने का अवसर मिला। खुसरो ने अपनी रचनाओं में जिस भाषा का प्रयोग किया है, वैसी ही भाषा और उन्हीं के छंदों से मिलते-जुलते छंदों का प्रयोग नौटंकी में बढ़ने लगा।

कुछ विद्वानों का यह भी मानना है कि ‘नाटक’ से ‘नाटकी’ एवं ‘नाटकी’ से ‘नौटंकी’ नाम पड़ा। विद्वानों का एक वर्ग यह भी मानता है कि इसका टिकट नौटंकी होने के कारण इसका नौटंकी नाम पड़ गया। कुछ विद्वान् यह मानते है कि मथुरा-वृन्दावन के भगत एवं रास और राजस्थान  की ‘ख्याल’ लोक विधा से ही नौटंकी का जन्म हुआ। स्वांग या संगीत एवं उत्तर भारत की रामलीला जैसी अन्य लोक विधाओं की लोकप्रियता कम नहीं रही, लेकिन अपने विविध आयामी स्वरूप के कारण नौटंकी ने जो लोकप्रियता प्राप्त की, वह अकल्पनीय है।

नौटंकी, लोकमंच पत्रिका
नौटंकी, लोकमंच पत्रिका

उत्तर भारतीय ढंग की नौटंकी की जन्मस्थली उत्तर प्रदेश है। हाथरस और कानपुर इसके प्रधान केंद्र है। उत्तर प्रदेश के पश्चिमी ज़िलों फ़र्रुख़ाबाद, शाहजहाँपुर, कानपुर, एटा, इटावा, मैनपुरी, मेरठ, सहारनपुर आदि में इसका विशेष प्रचार है। उधर ‘चिभुवन-मण्डली’ की नौटंकी विशेष प्रसिद्ध है।मध्य प्रदेश के ग्वालियर की नौटंकी भी प्रसिद्ध है। रास मण्डलियों की तरह नौटंकी की भी मण्डलियाँ होती हैं, जो एक स्थान से दूसरे स्थानों पर घूम-घूमकर नौटंकी का प्रदर्शन करती हैं। नौटंकी ग्रामीण जनता की नाट्यवृत्तियों का समाधान करने वाले मुख्य साधनों में अत्यधिक महत्वपूर्ण है। इस पर ‘पारसी थियेटरों’ तथा ‘नाटकीय रंगमंच’ का भी विशेष प्रभाव है। परन्तु आज चलचित्र के व्यापक प्रसार से इसकी वृद्धि और इसके प्रभाव में अन्तर आ गया है।

ऐतिहासिक दृष्टि से नौटंकी विधा के 5 अखाड़े हैं। मुज़फ़्फ़रनगर, सहारनपुर, कासगंज, कानपुर एवं हाथरस, किंतु नौटंकी के दो विशेष अखाड़े ही महत्त्वपूर्ण माने जाते हैं।  हाथरस, मथुरा  पश्चिमी उत्तर प्रदेश में एवं  कानपुर , लखनऊ मध्य उत्तर प्रदेश में। उत्तर प्रदेश के लगभग सभी बड़े शहरों – लखनऊ, वाराणसी, मेरठ, गाजीपुर, आजमगढ़, जौनपुर, मिर्जापुर, गोरखपुर, बलिया, मथुरा  आदि में दर्जनों नौटंकी और थियेटर कम्पनियाँ थीं।

विद्वानों का मानना है कि ‘नौटंकी’ ‘स्वांग’ का ही एक अलग विकसित रूप है। नौटंकी की कथाएं किसी व्यक्ति या महत्वपूर्ण विषय पर आधारित होती हैं, जैसे ‘आल्हा-ऊदल की नौटंक, ‘सुल्ताना डाकू’ की नौटंकी आदि। सुल्ताना डाकू नामक नौटंकी इसी नाम के उत्तर प्रदेश के बिजनौर में हुए एक डाकू की कहानी पर आधारित है। आज़ादी के आंदोलन के दौरान सुल्ताना डाकू से मिलते-जुलते विषय पर बहुत सी नौटंकियां खेली जाती थीं जिन्होनें जन-साधारण को इस आन्दोलन में शामिल होने की प्रेरणा दी।

नौटंकी, लोकमंच पत्रिका
नौटंकी, लोकमंच पत्रिका

नौटंकी अत्यंत ही लोकप्रिय और प्रभावशाली लोक-कला है। यह लोक-कला जनमानस के मन से भीतर तक जुड़ी हुई है। नौटंकी को गाँवों वालों के लिए सामाजिक समस्याओं के प्रति जानकारी प्रदान करने, सामाजिक कुरीतियों से परिचित कराने और सस्ता किंतु स्वस्थ मनोरंजन का ज्ञानवर्धक और मनोरंजक साधन माना जाता है। आजकल दहेज़-प्रथा, आतंकवाद और साम्प्रदायिक दंगों के विरुद्ध नौटंकियाँ देखी जा सकती हैं। दर्शकों की रूचि बनाए रखने के लिए नौटंकियों में अक्सर प्रेम-सम्बन्ध के तत्व होते हैं जो कभी-कभी अश्लीलता की श्रेणी में आ जाता है। कई अश्लील नौटंकियाँ भी सौ-डेढ़ सौ वर्षों से चलती आ रहीं हैं। इसी तरह की नौटंकियों के कारण अक्सर नौटंकी की शैली बदनाम भी होती आई है। पारम्परिक रूप से नौटंकियों के माध्यम से धन कमाने के उद्देश्य से यह ज़रूरी था कि दर्शकों को कभी भी ऊबने न दिया जाए, इसलिए अधिकतर नौटंकियों को 10 मिनट या उस से कम अवधि की घटनाओं को एक क्रम में जोड़कर बनाया जाता है। हर भाग में दर्शकों की रूचि बनाए रखने की कोशिश की जाती है। कहानी दिलचस्प रखने के लिए वीरता, प्रेम, मज़ाक़, गाने-नाचने और धर्म को मिलाया जाता है। कथाकार का यह प्रयास रहता है कि दर्शकों की भावनाएँ लगातार ऊपर- नीचे होती रहें।

रासलीला या अन्य लोक नाटकों के समान इसका  रंग मंच भी अस्थिर, कामचलाऊ और निजी होता है। किसी क्षेत्र की नौटंकी में छोटे-छोटे बालक स्त्रियों का वेश धारण करते हैं और उनका अभिनय करते हैं। दृश्यों के अभाव में सूत्रधार मंच पर आकर दृश्यों के घटित होने के स्थान, समय और पात्रों के विषय में दर्शकों को सूचना दिया करता है। किसी दूसरे क्षेत्र की नौटंकी में अनेक स्त्री-पुरुष पात्र होते हैं। स्त्री-पात्रों का अभिनय या तो विवाहिता या कुमारी स्त्रियाँ करती हैं अथवा वेश्याएँ करती हैं। वेश्याएँ दृश्यान्त में मंच पर आकर अपने नृत्य-गान, हाव-भाव, मुद्राओं से जनता का मनोरंजन करती हैं और नेपथ्य में अभिनेताओं को रूपसज्जा आदि करने का अवकाश देती हैं। रंगभूमि में एक ओर गायकों, वाद्य वादकों का समूह रहता है, जो अभिनय, संवाद, नृत्य की तीव्रता, उत्कटता को बढ़ाता रहता है। वाद्य यंत्रों में तबला और नगाड़े का विशेष प्रयोग होता है। तबले के तालों और नगाड़े की चोबों की गूँज रात में मीलों सुनाई पड़ती है, जिसके आकर्षण से सोते हुए ग्रामीण भी नौटंकी देखने पहुँच जाते हैं।

सुल्ताना डाकू, नौटंकी, लोकमंच पत्रिका
सुल्ताना डाकू, नौटंकी, लोकमंच पत्रिका

रुचि-वैचित्र्य के समाधान, स्वाद के परिवर्तन और शान्ति व्यवस्था बनाये रखने के लिए हास्यपूर्ण प्रसंगों की योजना रहती है, जिसमें नारी-पुरुष के रूप में पात्र प्रहसन प्रस्तुत करते हैं। प्राय: संवाद पद्य प्रधान होते हैं। अभिनेता मंच पर दर्शकों की ओर जा-जाकर उत्तर-प्रत्युत्तर देतें हैं और प्रश्न करते हैं। इस प्रकार संवाद प्राय: प्रश्नोत्तर शैली के होते हैं। उनमें उत्तेजना, साहस और दर्पपूर्ण उक्ति का बाहुल्य और प्रेम-प्रसंगों का आधिक्य रहता है। अधिकतर किसी वीर नायक को प्रेम के जाल में फँसा दिखाया जाता है, जिसके कारण उसका पतन हो जाता है। एक ओर सीमित मात्रा में नृत्य, गायन, काव्य पाठ, कथा-पाठ, मूक अभिनय एवं हास्य के धागों से बुनी ऐतिहासिक, पौराणिक अथवा समसामयिक विषय पर केन्द्रित कथा-वस्तु की लोकशैली में प्रस्तुति, नौटंकी की विशेषता रही, तो दूसरी ओर भाषा, संगीत, वेश-भूषा एवं चरित्र की दृष्टि से हिन्दू एवं मुस्लिम संस्कृति का समन्वय इसका स्वरूप। नौटंकी का स्वरूप धर्मनिरपेक्ष रहा तो रामलीला व रासलीला का धार्मिक।

आज नौटंकी का रूप बदला हुआ है। इसका रंगमंच प्राय: ऊंचा और साधारण होता है, जिसका निर्माण खुले मैदान में लट्ठों, बाँसों और कपड़ों की चादरों से किया जाता है। दर्शकों के लिए दूर तक चाँदनी तान दी जाती है और रंगभूमि बड़े-बड़े तख्तों से बनायी जाती है। प्राय: एक परदे का उपयोग किया जाता है, जो अभिनेताओं के रंग-भूमि में आने पर उठता है और उनके चले जाने पर गिरता है। कभी-कभी कार्य व्यापार चलते समय पात्रों का प्रवेश नेपथ्य अथवा मैदान से दर्शकों के बीच से होकर भी  होता है। इसका प्रेक्षागृह इतना बड़ा बनाया जाता है कि चाँदनी के नीचे सैकड़ों दर्शक बैठ जाएँ और न बैठ सकने पर पास के खुले मैदान को उपयोग में लाया जाता है। अब इसमें अनेक दृश्य होने लगे हैं, किन्तु प्रत्येक दृश्य की कार्य की सूचना सूत्रधार ही देता है। वही प्रारम्भ में लीला या कहानी के लेखक, पात्र तथा कथा आदि के विषय में दर्शकों को सूचना देता है और उनमें उनके प्रति उत्सुकता तथा जिज्ञासा उत्पन्न कर देता है।

नौटंकी में कविता और साधारण बोलचाल की भाषा का मिश्रण होता है। पात्र आपस में बातें करते हैं लेकिन गहरी भावनाओं और संदेशों को अक्सर तुकबंदी द्वारा प्रकट करते हैं। गाने में सारंगी, तबले, हारमोनियम और नगाड़े जैसे वाद्य इस्तेमाल होते हैं। उदाहरण के लिए ‘सुल्ताना डाकू‘ के एक रूप में सुल्ताना अपनी प्रेमिका को समझाता है कि वह ग़रीबों की सहायता करने के लिए पैदा हुआ है और इसीलिए अमीरों को लूटता है। उसकी प्रेमिका नील कँवल कहती है कि उसे सुल्ताना की वीरता पर गर्व है (इसमें रूहेलखंड की कुछ खड़ी-बोली है।

सुल्ताना

प्यारी कंगाल किस को समझती है तू?

कोई मुझ सा दबंगर न रश्क-ए-कमर

जब हो ख़्वाहिश मुझे लाऊँ दम-भर में तब

क्योंकि मेरी दौलत जमा है अमीरों के घर

नील कँवल

आफ़रीन, आफ़रीन, उस ख़ुदा के लिए

जिसने ऐसे बहादुर बनाए हो तुम

मेरी क़िस्मत को भी आफ़रीन, आफ़रीन

जिस से सरताज मेरे कहाए हो तुम

नौटंकी के अन्त में परिणाम उपदेशपूर्ण दिखाया जाता है। जहाँ भक्तचरित दिखाया जाता है, वहाँ भक्त के मार्ग में पूरी नौटंकी के दौरान अनेक कठिनाइयाँ आती हैं लेकिन अन्त में उसकी जीत होती है। नौटंकी के समाप्त होने तक उसका उद्देश्य प्रकट हो जाता है इसके बावजूद सूत्रधार अन्त में मंच पर आकर भलाई करने और बुराई से बचने व सत्य-धर्म के मार्ग पर चलने की शिक्षा देता है। प्रकाश की योजना आद्यन्त एक समान रहती है। नौटंकी के प्रारम्भ होने का समय रात के आठ बजे से और समाप्त होने का समय प्रात: पाँच बजे तक है। कभी-कभी कथा के विस्तार या जमी हुई भीड़ के कारण कार्यक्रम सूर्योदय तक चलता रहता है। प्राय: नौटंकी  कार्तिक, मार्गशीर्ष अथवा चैत्र, वैशाख के  महीनों  में हुआ करती है। मेलों के अवसरों पर इनका विशेष आयोजन होता है। उत्तर प्रदेश के मेलों का नौटंकी अभिन्न अंग होती है। इसके अतिरिक्त साप्ताहिक बाज़ारों में भी नौटंकी होती हैं।

नौटंकी , लोकमंच पत्रिका
नौटंकी , लोकमंच पत्रिका

नौटंकी‘ अथवा ‘स्वांग  का मुख्य छंद  चौबोला है। इसके अलावा नौटंकी में बहरेतबील, चौबोला, दोहा, लावणी, सोरठा, दौड़ आदि छंदों का विशेष रूप से प्रयोग किया जाता है।  इस चौबोले के दो रूप मिलते हैं, एक छोटी तान का, दूसरी लम्बी तान का। प्रत्येक चौबोले का आरम्भ  दोहे से होता है, जिसका अन्तिम चरण  कुण्डलिया की भाँति आगे के चौबोले से कुण्डलित रहता है। इसके सहकारी वाद्यवृन्दों में ‘नगाड़ा’ अनिवार्य है। नौटंकी के संगीत में नगाड़े का विशेष स्थान होता है। इसके अलावा ढोलक, डफली और हारमोनियम का भी प्रयोग किया जाता है।  

नौटंकी की भाषा में हिंदी, उर्दू लोकभाषा एवं क्षेत्रीय बोलियों के शब्दों का अधिक प्रयोग होता है। नौटंकी के संवाद गद्य और पद्य दोनों में बोले जाते हैं। पात्रों के अनुसार भाषा का रूप भिन्न नहीं होता। नौटंकी की भाषा लाक्षणिक ना होकर सरल और सुबोध होती है।

लेखक- डॉ अरुण कुमार, असिस्टेंट प्रोफेसर, लक्ष्मीबाई कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय

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