‘भारतीय रंगमंच’ भारत की तरह ही विविध छवियों का जटिल मिश्रण है जिसमें बहुत सारी रंग परंपराएं मिल कर भारतीय रंगमंच का स्वरूप बनाती है। इसमें स्थानगत, समयगत, शैलीगत, कथ्यगत विविधता है तो आंतरिक एकता का सूत्र भी है।
भारतीय रंगमंच है संस्कृत रंगमंच जिसकी परंपरा अत्यंत प्राचीन है। नाट्यशास्त्र में नाट्योत्पति का संदर्भ है कि ब्रह्मा के आदेश पर भरतमुनि ने ऋग्वेद से पाठ, यजुर्वेद से अभिनय, सामवेद से संगीत और अथर्ववेद से रस लेकर नाट्यरचना की। जिसे पांचवा वेद कहा गया क्योंकि अन्य वेदों की विपरित यह सभी वर्णों के लिये था[1]। नाट्यपरंपरा भरत के पहले भी विकसित रही होगी क्योंकि "नाट्यशास्त्र में सैकड़ो ऐसी नाट्यरूढियां बताई गई हैं जो बिना दीर्घकाल के परपंरा के बन ही नहीं सकती”[2]। पश्चिमी प्राच्य विद्वानों के लिये भारतीय रंगमंच का अर्थ संस्कृत रंगमंच ही था। भरत के नाट्यशास्त्र और संस्कृत के नाटकों की खोज भी तब हुई जब प्राच्यविदों ने भारतीय ग्रंथो की खोज का काम शुरू किया।[3] विलियम जोन्स ने कालीदास के नाटक ‘अभिज्ञानशाकुंतलम’ की खोज की और 1789 में इसका अनुवाद प्रकाशित किया[4]। भास, जो कालीदास के पूर्ववर्ती नाटककार थे, के नाटक बीसवीं सदी में खोजे गये। संस्कृत का रंगमंच शास्त्रबद्ध था जिसमें नाट्य प्रकारों, रंग स्थल, अभिनय, मंच सज्जा, रंगोपकरणों के साथ शैली की भी परिभाषा निर्धारित थी। ‘रस’ इसका केंद्रीय तत्व था। वैसे भास ने शास्त्र की सीमा का बार बार उल्लंघन किया। शुद्रक, भवभूति, हर्ष, विशाखदत्त संस्कृत के उल्लेखनीय नाटककार हैं। हजारवीं सदी तक संस्कृत रंगमंच का अवसान हुआ जिसके कतिपय कारण थे। अपभ्रंश भाषाओं के विकास के साथ ही संस्कृत का, जो पहले से भी जनभाषा नहीं थी, क्षेत्र संकुचित हो गया। अपभ्रंश भाषाओं में भी साहित्यिक रचना होने लगी। इसके साथ ही क्षेत्रीय भाषाओं में भी रंगमंच का विकास हुआ जिसने संस्कृत रंगमंच की विशेषताओं को भी अपनाया।[5] जनभाषा में होने के कारण इन नाट्यरूपों को अधिक लोकप्रियता मिली। कुछ विद्वान संस्कृत रंगमंच के अवसान के लिये राजनीतिक परिस्थितियों को भी जिम्मेवार ठहराते हैं।[6]
भारतीय रंगमंच की दूसरी परंपरा लोकनाटयों की है। जगदीशचंद्र माथुर इन्हें ‘परम्पराशील नाट्य’ कहने पर बल देते हैं।[7] इसके उद्भव के उन्होंने चार कारण गिनाये हैं। पहला, भागवत धर्म का अखिल भारतीय प्रसार, दूसरा, रंगमंच का मन्दिर, धार्मिक स्थलों, मेलों में आश्रय, तीसरा, संस्कृत का जनसाधारण से अलगाव और भाषा गीतों का नाटकों में समावेश और चौथा गीतात्मक प्रस्तुति शैली।[8] परपराशील रंगमंच की मुख्यतः दो प्रवृतियां है पहली, धार्मिक जिसमें रासलीला, रामलीला, कुट्टियाट्टम, अंकिया नाट, थेरुकुट्टु, यक्षगान जैसी शैलियां है। इनके कथानक के आधार और प्रक्रिया धार्मिक हैं। दूसरा है लौकिक, जिनमें स्वांग, खयाल, नौटंकी, नाचा, माच जैसी शैलियां मिलती हैं। इनके कथा स्रोत सामान्य जन जीवन हैं। अपने अपने क्षेत्रों में परंपराशील नाट्य निर्विवाद रूप से लोकप्रिय हुए। उन्नीसवीं सदी में एक भिन्न राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक व्यवस्था के आगमन और उसके वर्चस्व ने भारतीय संस्कृति को प्रभावित किया। निरंतर पुनरावृति, प्रेरणा की कमी, लौकिक नाटकों के कथानक की आवृति और कवायद में तब्दील होते चले जाने की वजह से इस रंगमंच में ठहराव गया। नवीन चेतना संपन्न बौद्धिकों को यह नाट्य रूप ‘जड़’ और ‘भ्रष्ट’ प्रतीत हुआ और उनका सान्निध्य इन्हें नहीं मिला। पूर्वआधुनिक कला रूप होने के कारण यह मान लिया गया कि इनमें आधुनिक जीवन की अभिव्यक्ति नहीं हो सकती।
औपनिवेशिक काल में अंग्रेजों द्वारा अपने मनोरंजन के लिये आयातित रंगमंच, शासन व्यवस्था, शिक्षा, और प्रिंट जैसे अविष्कारों के प्रभाव तथा रंगमंच में प्रोसेनियम और शेक्सपीयर के परिचय से एक नितांत भिन्न रंगमंच का आवीर्भाव हुआ जिसकी परंपरा भारतीय रंगमंच में नहीं थी। इसने नाट्य लेखन, प्रस्तुति और देखने की एक नई शैली प्रचलन में आई। अब प्रदर्शन का मतलब हो गया लिखित या छपे हुए नाट्य पाठ को प्रोसेनियम मंच पर अभिनेताओं द्वरा खेला जाना। नाटक देखने का शुल्क लगने लगा, इसे अब केवल सामने से देखा जा सकता था, दर्शक और अभिनेता की बीच एक आभाषी दीवार आ गई। रंगमंच अब सामुदायिक नहीं था, जिसमें दर्शक और अभिनेता एक ही समुदाय के अंग थे। परंपराशील रंगमंच में नाटक इम्प्रोवाइजेशन के जरिये खेले जाते थे और रात भर चलते थे वहीं आधुनिक प्रदर्शनो की समय सीमा निश्चित हो गई।
इससे भारत में व्यावसायिक रंगमंच का उद्भव हुआ। इसमें एक पारसी रंगमंच था जिसके मालिक पारसी थे। इन्होंने कंपनियां बनाई जो व्यवसाय के लिये प्रस्तुति करती थी और देश के विभिन्न हिस्सों में घूमती थी। भारत की विभिन्न भाषाओं में यह कंपनियां बनी। मुख्यतः यह विक्टोरियन रंगमंच की नकल था जिसमें पृष्ठभूमि के लिये रंगे पर्दों का इस्तेमाल होता था। प्रस्तुति गीत संगीत नृत्य से युक्त और अभिनय मेलोड्रामाई था। मुनाफ़े के मुख्य ध्येय को अर्जित करने के लिये यह तमाम तरह के लटको झटकों पर आश्रित होती गई और सवाक सिनेमा के आगमन के बाद इसका अवसान हो गया, क्योंकि इसकी बहुत सारी विशेषताएं सिनेमा ने अपना ली।
बांग्ला में और उसके बाद मराठी में अभिजात्यों के सरंक्षण में रंगमंच का विकास हुआ। पारसी से अलग इसने अंग्रेजी रंगमंच के सौंदर्यबोध से युक्त प्रस्तुति की। संपूर्ण भारत में व्यावासायिक रंग मंडलिया बनी। मराठी और बांग्ला की व्यावसायिक रंग मंडलियों का प्रभाव देशव्यापी रहा। भारतीय नवजागरण का आरंभिक आगमन बांग्ला और मराठी में हुआ था इसलिये यहां के रंगमंच ने अपने को इस आंदोलन से जोड़ा। माइकल मधुसूदन दत्त के मेघनाथ बध, दीनबंधू मित्र के नीलदर्पण, इत्यादि नाटकों ने समकालीन समय को अभिव्यक्त किया। हिंदी में और संभवतः भारतीय रंगमंच में पहली बार भारतेंदु हरिश्चंद्र ने विधिवत रूप से साहित्यिक रंगमंच की स्थापना की प्रयास की और इसे राष्ट्रीय चेतना से जोड़ने का आह्वान किया[9]। लेकिन बांग्ला और मराठी, जिसमें गिरिश चंद्र घोष, शिशिर नाथ भादुड़ी, बाल गंधर्व, इत्यादि जैसे रंगकर्मी थे, की तरह हिंदी में ऐसी परंपरा नहीं स्थापित हो सकी।
औपनिवेशक आधुनिकता वाले रंगमंच की शैली यथार्थवादी थी। जिसमें संकलन त्रय (स्थान , समय और क्रिया) का निर्वाह और यथार्थवादी दृश्यविधान में प्रस्तुति होने लगी। ‘संघर्ष’ केंद्रिय तत्व था, अधिकतर नाटक तीन अंकीय थे, गीत संगीत गौण हो गया। यद्यपि पारसी रंगमंच और मराठी रंगमंच पर संगीत की उपस्थिति थी। रवीन्द्रनाथ टैगोर(बांग्ला) और जयशंकर प्रसाद(हिंदी) ने अपने नाटकों के माध्यम से यथार्थवादी शैली का विकल्प तलाशा और नाटक भारतीय प्रदर्शन शैली में लिखे। टैगोर ने जहां इसमें नृत्य, गीत संगीत से युक्त नाटक लिखे वहीं प्रसाद ने संकलन त्रय के बंधन से मुक्त नाटक लिखा और ‘रस’ एवं ‘संघर्ष’ का समन्वय किया। लेकिन यथार्थवादी रंगमंच में इनकी समाई ना हो सकी।
स्वातंत्र्योत्तर भारत में राष्ट्रीय पहचान निर्मित करने में रंगमंच की भूमिका को भी महत्वपूर्ण मान कर राष्ट्रीय रंगमंच की स्थापना की राजकीय पहल हुई। आजादी के पुर्व ही भारतीय जननाट्य संघ (इप्टा ) ने अपने प्रयासों से अखिल भारतीय रंगमंच को खड़ा किया। राजनीतिक और जन सरोकारों से युक्त नाटक करने के लिये इन्होंने रंगमंच को प्रोसेनियम से बाहर निकाला और परंपराशील नाट्यशैलियों की ओर उन्मुख हुए। आजादी के बाद इसका आंदोलनात्मक स्वरूप क्षीण हुआ लेकिन इससे जुड़े अनेक रंगकर्मी स्वातंत्र्योत्तर भारतीय रगमंच के सूत्रधार बने।
औपनिविशिक रंगमंच की परंपरा आजादी के बाद भी रही जिसे मुख्यतः शहरी अभिजात/मध्यवर्गीय रंगकर्मियों ने आगे बढाया। यथार्थवाद आधुनिकता की उपज थी इसलिये यह मान लिया गया था कि शहर और आधुनिक जीवन की विसंगतियों को यथार्थवाद ही व्यक्त कर सकता है।
शंभु मित्रा और हबीब तनवीर और बाद में के.एम.पणिक्कर, रतन थियम जैसे निर्देशकों और गिरिश कर्नाड, विजय तेंदुलकर जैसे नाटककारों ने यथार्थवाद से अलग रास्ता निकाला। मित्रा और तनवीर ने माना कि भारतीय परंपरा से जुड़े बिना असली भारतीय रंगमंच नहीं हो सकता। इसलिये अनुकरण की मानसिकता को त्याग कर नृत्य संगीत, और संकलन त्रय के बंधन से मुक्त नाटक लिखे जाने चाहिये, जिससे कि व्यापक दर्शकों तक पहूंचा जा सके। इसके लिये परंपराशील प्रदर्शन शैली से रंगमंच को जोड़ा जाए। यह टैगोर और भारतेंदु का दिखाया रास्ता था।
यथार्थवादी मुहावरे के पक्षधरों का कहना था कि इसकी भी परंपरा सौ वर्ष की है और शहर में भी एक लोक विकसित हो चुका है इसलिये इस मुहावरे को त्यागा नहीं जा सकता। मोहन राकेश, महेश एलकुंचवार इसके समर्थक थे। सत्तर के दशक में यथार्थवादी उपकरणों को अभारतीय बताते हुए ‘जडों के रंगमंच’ का नारा सामने आया और जड़ों से जुड़ने के लिये परंपराशील रंगमंच संस्कृत नाटक और ब्रेख्त की ओर ध्यान गया । यथार्थवादी नाटककारों ने शंका जताई कि ये शैलियां एक खास परम्परा की उपज हैं, इनके आलंकारिक इस्तेमाल से एक नकली रंगमंच विकसित होगा और यह रंगमंच को आधुनिक मुल्यों की ओर जाने से रोकेगा। लेकिन परंपराशील मुहावरे ने यथार्थवादी रंगमंच को अपदस्थ कर दिया।
नब्बे के बाद भारतीय रंगमंच में स्त्री निर्देशकों का काम उभरा जिन्होंने जेंडरीकरण की प्रक्रिया को दिखाने के लिये रंगमंच पर शिल्प और वस्तु दोनों को बदला। उपलब्ध आलेखों को भी इन्होंने नितांत नई शैली, नये आख्यान में प्रस्तुत किया। इस दौरान रंगमंच पर तकनीक का भी आगमन हुआ जिसमें डिजीटल छवियों, ध्वनियों, प्रकाश उपकरणों इत्यादि ने प्रस्तुति सरंचना को बदल दिया।
पूर्व आधुनिक प्रकार का भारतीय रंगमंच उत्सव प्रधान था और सामुदायिक जीवन के उल्लास से जुड़ा था वहीं आधुनिक रंगमंच में या एक ओर व्यावसायिक मूल्य हावी रहा तो दूसरी तरफ़ उसमें अपने समकालीन जीवन से जूड़ने की ललक भी रही। इसी ललक में रंगमंच अंग्रेजी शासन के प्रतिरोध के स्वरूप में उभरा।जिसको दबाने के लिये अंग्रेजी राज्य ने १८७६ का ड्रामेटिक परफार्मेंस एक्ट लागू किया, इससे बचने के लिये अभिव्यक्ति की रणनीतियों को बदला गया। इप्टा का जन्म ही साम्राज्यवादी गतिविधियों के प्रतिरोध के लिये हुआ था। इसने अंग्रेजी राज्य और आजाद भारतीय राज्य दोनों की आलोचना की। नुक्कड़ नाटक के रूप में अनोखी शैली भारतीय रंगमंच में आई जिसमें रंगमंच जनता तक पहूंचती थी। समकालीनता कि अभिव्यक्ति के लिये लोकप्रिय शैली के रूप में सत्तर के दशक में इसमें गति आई, भारत के विविध क्षेत्रों में नुक्कड़ नाटक मंडलियां गठित हुई। बादल सरकार ने अपने परवर्ती सभी नाटक इसी शैली के लिये लिखे और तीसरे रंगमंच की प्रस्तावना की। सफ़दर हाशनी ने नुक्कड़ नाटक को राजनीतिक ओज दिया।
भारतीय रंगमंच इस तरह से विविध रंग छवियों का कोलाज हैं जिसमें संस्कृत है तो उसके बरक्स परंपराशील भी है। भारतीय ‘रस’ की केन्द्रीयता है तो पाश्चात्य ‘संघर्ष’है। परंपरा से नितांत भिन्न औपनिवेशिक रंगमंच है तो अपनी परंपरा से जुड़ने का प्रयास करता उत्तर औपनिवेशिक रंगमंच भी है। इसमें अभिजात का मनोरंजन है तो जनप्रतिरोध का स्वर भी है। भारतीय रंगमंच की इस विविधता ने ही विदेशी रंगकर्मियों को आकर्षित किया है। स्तानिस्लावस्खी, ब्रेख्त, रिचर्ड शेखनर, पीटर ब्रुक, ग्रोतोवोस्की इत्यादि के रंग विचारों में भारतीय रंगमंच का प्रभाव देखा जा सकता है।
[1] इस तथ्य का वर्णन नाट्यशास्त्र में मिलता है. विस्तृत अध्ययन के लिये देखें, सिल्विया लेवी ( 1978) द थियेटर आफ़ ईंडिया वाल्युम-2, अ राईटर्स वर्कशाप पब्लिकेशन, कलकत्ता. तथा, सुरेन्द्रनाथ दीक्षित (1970) भरत और भारतीय नाट्यकला, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली
[2] हजारीप्रसाद द्विवेदी (1963) प्राचीन भारत के कलात्मक विनोद, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली : 21
[5] वी राघवन और आद्य रंगाचार्य.(१९७१) द इंडियन थियेटर, ने.बु.ट्र. दिल्ली. दोनों ही इस तथ्य का जिक्र करते हैं.
[7] माथुर, जगदीश चंद्र. (1969), परंपराशील नाट्य, बिहार राष्ट्रभाषा परिषद, पटना, पृ- 4-5
[9] आद्य रंगाचार्य(१९७१): १०३
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